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जब ममता ही बोझ प्रतीत होने लगे …..
वक़्त कितना बदल जाता है
जब बच्चों को अपनी ‘माँ’ का
उनके लिये खयाल करना
फ़िक्र करना, परेशान करने
लगता है; जान पड़ता ऐसा
मानो ‘’ ममता ’’ ही उनको
बोझ स्वरूप लगती है, आज ।
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जबकि बच्चे चाहें कितने भी बड़ें,
हों जायं; पर नहीं घटती ‘उसकी’
चिंता,कम नहिं होती ‘माँ’ की ममता।
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मानो उसके रग-रग में या फिर
ज्यूं लहू में कुछ यूं समायी रहती.
इसी को ‘माँ ’ की ममता कहतें –
यही कहलाती वात्सल्यता है ।
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हो जाते ज्यों – ज्यों बड़े –
बच्चे – सुजान , बन जातें हैं ;
नई उमंगों – नई तरंगों के –
संग नई-दुनिया में खो जातें हैं .
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जिस आंचल – जिस गोद पले ;
बड़े हुए, नित – खेले – थे,
जिसकी ठंडक – गरमी जिसकी ,
मन को बहुत – सुख देती थी,
जिसकी बातें – जिसकी लोरी
जिसकी ‘खीर’, ‘हलुवा’ और ‘पूरी’
सबसे ‘ निराली ‘ होती थी
अपनी प्यारी ‘मैया’ जहां की
सबसे न्यारी लगती थी ।
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अब नहीं भाती सूरत उसकी ,
ना खाँसती ; ना मुस्काती ।
मैली साड़ी में ‘वो’ दिखती ,
रोज है, ‘ बुढ़िया ’ जैसी ।
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भोली माँ कुछ समझ न पाए
दर्द ज़िगर का बढ़ता जाय
चूक कहाँ हो गई, थी उससे
रहस – समझ ना आये,
क्यों अपना ‘जाया’ बन गया
है, उससे इतना अनजाना !
क्या ‘परजायी’ का है, क़माल ?
या कलयुगी है, बय़ार ?
कल ‘मैया‘ थी ! अब बुढ़िया है !
मीनाक्षी श्रीवास्तव
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